More Coverage
Twitter Coverage
Join Satyaagrah Social Media
रामचरितमानस एवं उसके अंग्रेजी अनुवाद तथा हिंदी के अकेडमिक्स का दोहरा रवैया
अंग्रेज यहाँ पर आए थे व्यापारी बनकर परन्तु जब वह यहाँ आए तो यहाँ की सम्पन्नता देखकर बौखलाना भी स्वाभाविक था। ऐतिहासिक तथ्यों पर न जाते हुए, वह हमारे सांस्कृतिक तत्वों से कितने प्रभावित हुए और उनमें से वह अपने देश के लिए क्या क्या ले गए, और कितना अनूदित किया, उस पर बात करना अब आवश्यक है। एक ग्रन्थ है रामचरितमानस! आज भी हिंदी का सबसे ज्यादा बिकने वाला ग्रन्थ है, इसके जितना ग्रन्थ कोई नहीं बिकता। यही लोकप्रियता का शिखर उस समय भी था।
उस समय जब भारत सांस्कृतिक रूप से अपने असली स्वरुप को पहचान रहा था, तब एक ऐसा ग्रन्थ आया जिसने सत्य के नायक राम को जन जन तक पहुंचाया। उस ग्रन्थ में सांस्कृतिक क्लिष्टता नहीं थी। उस ग्रन्थ में कोई श्रेष्ठता बोध नहीं था, बल्कि तुलसी तो शुरू में ही हाथ जोड़कर सभी विद्वानों से क्षमा मांगते हैं। तुलसी विनम्र होना सिखाते हैं। बालकाण्ड में आरम्भ में वह सभी को प्रणाम करते हैं। अंग्रेज विद्वान इस ग्रन्थ की लोकप्रियता पर चकित होते हैं। रामचरित मानस के अंग्रेजी में कई अनुवाद हुए हैं, जिनका विश्लेषण किया जाना चाहिए। यहाँ हमने तीन अनुवादों के कुछ बिन्दुओं को लिया है।
जिस प्रकार तुलसीदास जी का काव्य प्रयोजन था, कि राम की कथा को घर घर तक पहुंचाना, और जनभाषा में पहुंचाना, ऐसे ही अनुवादकों का भी कोई न कोई प्रयोजन तो अवश्य रहा होगा। एक ऐसा ग्रन्थ जिसे पढने की अनुशंसा कोई नहीं करता परन्तु फिर भी वह ग्रन्थ भारत के लाखों लोगों के जीवन की प्रेरणा का आधार है। अंग्रेज विद्वान इस बात पर हैरानी व्यक्त करते हैं कि आधे शरीर पर वस्त्र पहने ये गाँव के लोग इतने सुखी कैसे रह लेते हैं? आखिर उस किताब में ऐसा क्या है जिसके होने भर से वह घर पूरे गाँव में पूज्यनीय हो जाता है। यह किसी भी ग्रन्थ की लोकप्रियता का प्रमाण है। इसके लिए आलोचक या एकेडमिक्स की जरूरत नहीं है। जब तुलसीदास रामचरित मानस रच रहे थे, तो क्या एकेडमिक्स अर्थात सत्ता के द्वारा संचालित होने वाले संस्थानों में सांस्कृतिक व्यक्ति नहीं होंगे? कई होंगे, और ऐसे भी रहे होंगे जो दावा करते रहे होंगे कि हम तुलसीदास से बेहतर हैं।
खैर, बात आते बढाते हैं। तुलसीदास के रामचरित मानस के अंग्रेजी अनुवाद की भूमिकाओं पर। Growse द्वारा अनूदित द रामायण ऑफ तुलसीदास (The Ramayana of Tulsidasa) में परिचय में लिखा है कि “मानस भारतीयों के दिलों में गहरे तक धंसा है……………… तुलसीदास मिल्टन की तरह एक कवि मात्र नहीं थे, वह एक कवि थे, संत थे, एक क़ानून निर्माता थे एवं वह मुक्तिदाता थे. जब देश मुस्लिम आतताइयों के अत्याचारों से पीड़ित था, और हिन्दुओं पर न जाने कैसे कैसे अत्याचार हो रहे थे, तो यह तुलसी ही थे, जो आशा एवं मुक्ति लाए थे (The Manasa has apparently gone too deep। ……………। Tulasi for them is not just a poet believing as did Milton, in his destiny as a poet and despising prose, he is a seer, a law giver, a liberator। When the country was plunged in that sinister, gloomy, and morbid atmosphere which the Muslim rule had from time to time unleashed, it was Tulasi, they feel who brought them hope and liberation)”
इसी प्रकार जे एम मैक्फी ने जब रामचरित मानस का अनुवाद किया तो उन्होंने इसे उत्तर भारत की बाइबिल कहा। “हमें यह स्वीकार करना होगा कि यह उत्तर भारत की बाइबिल है. और यह आपको हर गाँव में मिलेगी, इतना ही नहीं, जिस घर में यह पुस्तक होती है, उसके स्वामी का आदर पूरे गाँव में होता है, जब वह इसे पढता है. कवि बहुत चतुर थे जिन्होनें इस कविता को स्थानीय भाषा में लिखा” “We might speak of it with truth as the Bible of Northern India। A copy of it is to be found in almost every village। and the man who owns it earns the gratitude of his illiterate neighbors when he consents to read aloud from its pages। The poet was wiser than he knew, when he insisted on writing his book in the vernacular।”
इससे पहले राम कथा को उत्तर भारत की बाइबिल Griffith ने Ramanaya of Valmiki के Introduction में कहा था।यद्यपि इनमे से हर कोई इस बात पर अवश्य अचरज व्यक्त करता है कि इतनी महान रचनाओं को रचने वाले कवि के जीवन के विषय में बहुत कुछ नहीं लिखा गया है। उस समय के एकेडमिक्स भी आज के एकेडमिक्स की तरह जड़ों से कटे रहे होंगे, ऐसा यह अंग्रेजी विद्वान कहना चाहते हैं।
द होली लेक ऑफ रामा में परिचय में लिखा है कि “इस पुस्तक की लोकप्रियता का प्रमाण हर गाँव में होने वाली राम लीलाएं हैं. यह कविता बहुत ही कलात्मक कृति है. कवि कहानी के बढ़ने के साथ ही एक उपदेशक हो जाता है. (A proof of the universal popularity of the poem is the annual performance of the Ram Lila (said to have been instituted by Tulasidas himself as Kasi) in every town and village in North India। ………………………………… From the oriental point of view the poem is a work of the highest artistic merit। ………………।। The poet is at his best when the story moves rapidly along; but when he becomes a preacher and allows his characters to indulge in lengthy metaphysical and moral discourse and when pages are filled with sentimental description of tender greetings and farewells”
लिखने को और और भी लिखा जा सकता है, परन्तु लेख की सीमाएं होती हैं। यह बात इसलिए लिखी क्योंकि कुछ एकेडमिक्स को तुलसीदास का लेखन पसंद नहीं है। या तो उन्होंने समग्र पढ़ा नहीं है या फिर फेलोशिप आदि इसीलिए मिली होगी कि अपनी समृद्ध परम्परा को गाली दें। खैर, एकेडमिक्स का यह रवैया आज का नहीं हैं।
भारत में एकेडमिक्स ने दरबारियों का काम किया है अर्थात लोक से भिन्न होने का। जो लोक में था उसे काट कर अलग कर दिया। लोक में स्वतंत्र स्त्रियाँ थीं, उन्हें गुलाम बनाकर एकेडमिक्स ने भारत का रोना बेचा। भारत की स्त्रियों का आत्मसम्मान और उनका आत्मबोध एकेडमिक्स ने छीनने का पुरजोर प्रयास किया। जैसे तुलसीदास जैसे कवियों पर बात न करके किया। तुलसी और कबीर को परस्पर प्रतिस्पर्धी बनाकर किया। भारतीय भक्तिकालीन कवियत्रियों का इतिहास छिपाकर किया।
परन्तु एकेडमिक्स और चेतना दो अलग अलग चीज़ें हैं, दो अलग अलग धरातल है। शिवाजी को एकेडमिक्स ने स्थान नहीं देना चाहा, उसके स्थान पर औरंगजेब को फ़कीर, संगीत प्रेमी आदि आदि साबित करना चाहा। परन्तु शिवाजी चेतना में थे, वह हमारी स्मृतियों में थे, वह आज पीढ़ियों के बाद भी हमारी चेतना और स्मृति को जागृत किए हुए हैं। जनता से टूटे हुए और एजेंडा लेकर चलने वाले एकेडमिक्स साहित्य और चेतना नहीं रच सकते।
वह तुलसी पर बात करके खुद को जरा सा प्रासंगिक तो कर सकते हैं, परन्तु यह नहीं बता सकते कि आज से पांच सौ साल बाद उनकी क्या कोई रचना ऐसी होगी, जिस पर न आलोचकों ने कुछ बोला हो, न ही एकेडमिक्स ने जगह दी हो, वह जन जन तक लोकप्रिय हो!
समय एजेंडा चलाने वाले एकेडमिक्स के लिए सोचने का है, कि कबीर और तुलसी को आपस में भिड़ाने के स्थान पर कृपया एक नया विमर्श आने वाली पीढ़ी को देकर जाएं।
क्या आप तुलसीदास के रामचरितमानस के लंकाकाण्ड की चौपाई- ‘प्रभु ताते उर हतईं न तेही. एहि के ह्रदय बसत वैदेही.’ से रूबरू हैं? यह राक्षसी त्रिजटा है, जो सीता से कहती है कि ‘राम, रावण के ह्रदय में, बाण इसलिये नहीं मार रहे क्योंकि उसमें सीता बसती हैं’. जबकि हम सब यही जानते और मानते हैं कि नाभि में अमृत होने की वजह से रावण मर नहीं रहा था. मुझे लगता है कि ऐसी ही अन्य कई गुमनाम चौपाइयों, दोहों और सोरठों से मानस में कथात्मक यथार्थ का जो एक अलग और वास्तविक अर्थ-वलय बनता है उसे जाना जाए. दरअसल, आलोचकों और कथा-वाचकों ने हमारे आँखों में अपने अर्थ की पट्टी बाँध दी है. एक अदभुत कथा को खींच-तान कर लुगदी बना दिया गया है. कवियों पर उसका गहरा प्रभाव बना रहा. छायावादी निराला को इसने अत्यंत प्रभावित किया जिसका परिणाम राम की शक्तिपूजा है,पर आगे हम देखेंगे कि यह मानस से अधिक यथार्थवादी कविता नहीं है. खैर, त्रिलोचन भी कहते हैं- ‘तुलसी बाबा मैंने कविता तुमसे सीखी’.
दरअसल, प्रगतिवादी दौर में इस ग्रन्थ की लोकप्रिय सत्ता को जबदस्त चुनौती मिली. मानस के विचार-पक्ष को प्रश्नांकित किया गया. इसमें सामंती मूल्यों का साहित्यिक-संस्थायन देखा गया. कुछ आलोचकों ने इसे धर्म-ग्रन्थ घोषित कर दिया. मुक्तिबोध जैसे कवि-आलोचक ने मानस को पतनशील कविता बताया तथा इसकी आधुनिक प्रासंगिकता पर सवाल खड़े किये. आज भी, रामचरितमानस एक अत्यंत विवादास्पद कविता के रूप में हमारे सामने है. हिन्दी की दलित एवं स्त्री धारा में यह उपेक्षित है. दलित गुटों ने तो इसे सार्वजनिक रूप से जलाया भी है. स्त्री-विमर्श में भी यह विरोध की प्रमुख किताबों में है. स्कूलों एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों से मानस के अंशों को धीरे-धीरे हटाया जा रहा है. क्या सचमुच मानस की कविता की अर्थवत्ता हमारे समय में खत्म हो चुकी है? भारत की अधिकाँश जनता को जिस कविता ने अभी भी एक भाव-धारा में बाँध रखा है क्या उसका साहित्यिक और सामाजिक मूल्य अब कुछ नहीं है? क्या मानस धर्मान्धता का प्रचार करने वाली एक खतरनाक पुस्तक है जिसे मंदिरों तक ही सीमित रहने देना चाहिए? क्या वह हिंदू-जिहाद का प्रचार करने वाली आसमानी किताब है? सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे. अरथ अमित अति आखर थोरे. का रचनात्मक आदर्श रखने वाला काव्य-ग्रन्थ रामचरितमानस क्या आज प्रासंगिक नही है?
|
Support Us
Satyagraha was born from the heart of our land, with an undying aim to unveil the true essence of Bharat. It seeks to illuminate the hidden tales of our valiant freedom fighters and the rich chronicles that haven't yet sung their complete melody in the mainstream.
While platforms like NDTV and 'The Wire' effortlessly garner funds under the banner of safeguarding democracy, we at Satyagraha walk a different path. Our strength and resonance come from you. In this journey to weave a stronger Bharat, every little contribution amplifies our voice. Let's come together, contribute as you can, and champion the true spirit of our nation.
ICICI Bank of Satyaagrah | Razorpay Bank of Satyaagrah | PayPal Bank of Satyaagrah - For International Payments |
If all above doesn't work, then try the LINK below:
Please share the article on other platforms
DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text. The website also frequently uses non-commercial images for representational purposes only in line with the article. We are not responsible for the authenticity of such images. If some images have a copyright issue, we request the person/entity to contact us at This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it. and we will take the necessary actions to resolve the issue.
Related Articles
- The forgotten temple village of Bharat: Maluti
- Jagannath Temple administration issues clarification on proposed sale of temple lands
- अथ रामचरितमानस प्रकाशन कथा: गीता प्रेस, गोरखपुर ने 1938 से रामचरितमानस का प्रकाशन शुरू किया
- An Artisan Heritage Crafts Village: Indigenous Sustainability of Raghurajpur
- Why India’s temples must be freed from government control
- Biggest Wonder of the World : Kitchen of Lord Shri Jagannath
- Hinduism, Hindutva and the Contest for the Meaning of Hindu Identity: Swami Vivekananda and V.D. Savarkar
- Culture And Heritage - Meenakshi Temple Madurai
- Dear NSUI, Bhagat Singh And Subhas Chandra Bose Admired Savarkar And His Ideas
- Righteousness vs Loyalty: Prince Rama obeys his father and leaves the Ayodhya kingdom