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वर्ष 1818 में अंग्रेजों ने मराठों को परास्त कर, अखंड भारत के बड़े से भूभाग पर अपना नियंत्रण कर लिया था। अब उनकी प्राथमिकता थी, शासन चलाना। शिक्षा पद्धति इस शासन व्यवस्था का ही एक महत्वपूर्ण अंग था

किस प्रकार अंग्रेजों ने भारत की विकसित शिक्षा प्रणाली को ध्वस्त किया: आइए जानें

सर्वेक्षणों से प्राप्त डेटा के अनुसार वर्ष 1825 के आस पास, शाला में जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या थी 1,75,089, इनमें से मात्र 24.25% ब्राह्मण विद्यार्थी थे, अन्य सवर्ण जाति 11%, बचे हुए (शूद्र तथा अन्य पिछड़ी जाति) 57.75% एवं मुस्लिम विद्यार्थियों की संख्या 7% थी
 |  Satyaagrah  |  Education

हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था तथा पाठशालाएं अंग्रेजों ने प्रारंभ कीं ऐसा कहा जाता है। अंग्रेज़ों के आने से पहले देश में शिक्षा के मामले में अंधकार ही था, ऐसा भी बताया जाता है। किन्तु सत्य परिस्थिति क्या थी? अंग्रेजों और मुस्लिम आक्रांताओं के आने के पहले भारत में जो शिक्षा पद्धति थी, उसका मुक़ाबला संसार में कहीं भी नहीं था। अत्यंत व्यवस्थित पद्धति से रची गई यह भारतीय शिक्षा व्यवस्था, सभी आवश्यक क्षेत्रों में ज्ञान एवं प्रशिक्षण प्रदान करती थी।

An aerial reconstructed view of Taxila University
An aerial, reconstructed view of Taxila (Takshashila) University

विश्व का पहला विश्वविद्यालय (यूनिवर्सिटी), तक्षशिला, भारत में प्रारंभ हुआ। उन दिनों भारत में ‘अनपढ़’ जैसा कोई शब्द प्रचलन में नहीं था। आज हमारे बच्चे पढ़ाई करने विभिन्न देशों में जाते हैं। उस समय, विभिन्न देशों के बच्चे, पढ़ने के लिए भारत में आते थे। एक भी भारतीय युवा, उन दिनों पढ़ने के लिए विदेश में नहीं जाता था। एक परिपूर्ण शिक्षा पद्धति भारत में काम कर रही थी। लड़के / लड़कियों को साधारण आठ वर्ष की आयु तक घर पर ही शिक्षा दी जाती थी। आठवें वर्ष में लड़कों का उपनयन संस्कार कर के उन्हें गुरु के पास अथवा गुरुकुल में भेजने की परंपरा थी। ‘गुरु’ शब्द का अर्थ केवल ‘संस्कृत भाषा की शिक्षा देने वाले ऋषि’ नहीं होता था। ‘गुरु’ अपने किसी विशिष्ट क्षेत्र का दिग्गज होता था।

समुद्र किनारे रहने वाले परिवारों के बच्चे जहाज निर्माण करने वाले अपने ‘गुरु’ के पास रहकर जहाज निर्माण की प्रत्यक्ष शिक्षा ग्रहण करते थे। यही परंपरा भवन निर्माण, लुहारी, धनुर्विद्या, मल्लविद्या जैसी भिन्न – भिन्न कलाओं को सीखने के बारे में भी लागू थी। अगले 8-10 वर्षों तक गुरु के यहां शिक्षा ग्रहण करने के बाद, इनमें से कुछ विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालयों में जाते थे। इन विश्वविद्यालयों में विभिन्न शास्त्रों और कलाओं को सिखाने की व्यवस्था थी।

स्त्रियों को भी उच्च शिक्षा देने की पद्धति और परंपरा थी। ऋग्वेद में स्त्री शिक्षा के बारे में कई उल्लेख मिलते हैं। प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने वाली बालिकाओं को ‘ऋषिका’ और उच्च शिक्षित स्त्रियों को ‘ब्रह्मवादिनी’ कहा जाता था। पाणिनी ने अपने ग्रंथ में लड़कियों की शिक्षा के बारे में लिखा है। छात्राओं के लिए छात्रावास (हॉस्टल) भी बनाए जाते थे। इसके लिए पाणिनी ने ‘छत्रिशाला’ शब्द का उपयोग किया है।

विश्वविद्यालयों में शिक्षा – सत्र प्रारंभ होने तथा सत्र समाप्त होने के समय बड़ा उत्सव होता था। सत्रारंभ उत्सव को ‘उपकर्णमन’ तथा सत्र समाप्ति पर हों वाले उत्सव को ‘उत्सर्ग’ कहा जाता था। उपाधि (डिग्री) प्रदान किए जाने वाले उत्सव को ‘समवर्तना’ कहा जाता था।

‘हारून-अल-रशीद’ इस नाम का अरबी कथाओं का नायक (वर्ष 754 से 849), बगदाद में राज करता था। इस हारून-अल-रशीद ने और अरबी सुलतान अल मंसूर ने, भारतीय विश्वविद्यालयों से प्रतिभाशाली युवाओं को लाने के लिए अपने विशेष दूत भेजे थे। यह था विश्व का पहला ‘कैम्पस इंटरव्यू’, 1200 वर्ष पहले..!

किंतु लगभग नौ सौ वर्ष पहले, जब मुस्लिम आक्रांताओं का आक्रमण होता गया, तब परिस्थिति बदली। बख्तियार खिलजी जैसे अनपढ़ और खूंखार सरदार ने नालंदा समवेत अधिकतर विश्वविद्यालय नष्ट कर दिये। हमारी ज्ञान परंपरा खंडित हो गई तो हमने समझा, हमारी सारी शिक्षा व्यवस्था ठप्प हो गई। 

किन्तु ऐसा नहीं था।

मुस्लिम आक्रांताओं ने हमारे बड़े, छोटे विश्वविद्यालय ध्वस्त किए। अनेक गुरुकुल जला दिये। लेकिन उनके पास कोई शिक्षा का समानांतर मॉडल थोड़े ही था। उन के पास तो शिक्षा का ही मॉडल नहीं था। वे, खैबर के दर्रे के उत्तर – पश्चिम में स्थित, अनेक कबाइलियों में से थे। ये कबाइली अनपढ़, गंवार, खूंखार, लेकिन अपने मजहब के प्रति अत्यधिक कट्टर थे। कट्टरता के इसी जुनून ने उन्हें भारत में सत्ता दिलाई। लेकिन इस विशाल देश में प्रशासन चलाने का कोई विशेष ज्ञान या कोई व्यवस्था उनके पास नही थी। आज जिसे हम मुगल आर्ट और मुगल स्थापत्य कहते हैं, वह मूलतः भारतीय स्थापत्य ही है, जो इस्लामी राजाओं के लिए, या इस्लामी व्यवस्था के लिए बनाया गया है। यदि यह वास्तुकला इन आक्रांताओं के पास होती, तो इस शैली के अनेक वास्तु हमें भारत के बाहर, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, किरगिस्तान, उझबेकिस्तान आदि में मिलते। किन्तु ऐसा नही है।

इसलिए बड़े विश्वविद्यालय न सही, किन्तु प्राथमिक / माध्यमिक स्तर की शालाओं का जाल, सारे देश में था। जहां हिन्दू राजा, मांडलीक के रूप में थे, वहां उन्होंने शालाएं बनवाईं और चलवाईं।

अंग्रेज़ जब भारत में हुकूमत करने की स्थिति में आए, तो उन्होंने सबसे पहले, भारत की शिक्षा प्रणाली का सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण की रिपोर्ट इंग्लैंड, स्कॉटलैंड और कुछ अंशों में भारत में भी उपलब्ध हैं। ये सारी रिपोर्ट सनसनीखेज हैं। हमारी सारी मान्यताओं को और हमें आज तक पढ़ाए गए इतिहास को झुठलाने वाली ये सब रिपोर्ट्स हैं।

Battle of Plassey
Battle of Plassey

सन 1757 में प्लासी का युद्ध जीतने के बाद, ईस्ट इंडिया कंपनी का बंगाल पर कब्जा हो गया। जब उन्होंने अपना प्रशासन तंत्र अमल में लाने का प्रयास किया, तो उन्हें पता चला कि पूरे बंगाल में, कर वसूली लायक भूभाग में से, 34 प्रतिशत जमीन से कोई कर वसूली नहीं होती है। इस का कारण है, कि ये सारी जमीन पाठशालाओं के लिए है। इसको देखते हुए अंग्रेजों ने (अर्थात ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों ने), उनका शासन जहां था, ऐसे क्षेत्रों में शिक्षा का सर्वेक्षण करने की योजना बनाई।

वर्ष 1818 में अंग्रेजों ने मराठों को परास्त कर, अखंड भारत के बड़े से भूभाग पर अपना नियंत्रण कर लिया था। अब उनकी प्राथमिकता थी, शासन चलाना। शिक्षा पद्धति यह शासन व्यवस्था का ही एक अंग था। उन दिनों मद्रास प्रेसीडेंसी में गवर्नर जनरल के पद पर मेजर जनरल सर थॉमस मुनरो आसीन थे। इन्होंने 25 जून 1822 को एक आदेश निकाला, जिसके अंतर्गत मद्रास प्रेसीडेंसी के सभी कलेक्टर्स को कहा गया था कि वे गांवों की पाठशालाओं के बारे में जानकारी इकठ्ठा कर भेजें।

Sir Thomas Munro 1st Baronet
Sir Thomas Munro, 1st Baronet

थॉमस मुनरो (Sir Thomas Munro : 27 मई 1761 – 6 जुलाई 1827) यह स्कॉटिश योग्धा थे और ईस्ट इंडिया कंपनी में तरक्की पा कर मेजर जनरल के पद पर पहुंचे थे। 10 जून 1820 से लेकर तो 10 जुलाई 1827 तक यह मद्रास प्रेसीडेंसी के गवर्नर जनरल रहे। ईस्ट इंडिया कंपनी और अंग्रेजी हुकूमत के प्रति अत्यधिक समर्पित, थॉमस मुनरो, भारतियों को दी जाने वाली शिक्षा के प्रति सजग थे। इसलिए उनके कलेक्टर्स ने भेजे हुए रिपोर्ट्स का अध्ययन करने में उन्हें चार वर्ष लगे। 10 मार्च 1826 को उन्होंने इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट को जारी किया। इसका शीर्षक था : ‘The early measures for education in the Madras Presidency – Sir Thomas Munro’s minutes on education in 1822 and 1826.’ इस रिपोर्ट में जनरल मुनरो के शब्द हैं – ‘प्रेसीडेंसी के सभी गावों में पाठशालाएं हैं’। (Every village has a school). इस रिपोर्ट के सातवें अध्याय (Chapter) में जनरल मुनरो लिखते हैं, “State of native education here exhibited, low as it is compared with that of our own country, it is higher than it was in most European countries at no very distant period’. अर्थात ‘मद्रास प्रेसीडेंसी में शिक्षा का स्तर अपने देश (इंग्लैंड) से कम है, किन्तु लगभग सभी यूरोपियन देशों से अच्छा है। जनरल मुनरो, इंग्लैंड के शिक्षा के स्तर को कम कैसे बोल सकते थे..? किन्तु बाकी लोगों ने क्या कहा ? अनेक समकालीन ब्रिटिश अधिकारियों और ईसाई मिशनरियों ने यह लिखकर रखा है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था, इंग्लैंड की शिक्षा प्रणाली से अच्छी है।

इसी मद्रास की रिपोर्ट में लिखा है, ‘(मद्रास) प्रेसीडेंसी में 12,498 पाठशालाएं हैं, जिन में 1,88,650 विद्यार्थी पढ़ते हैं’।

जनरल मुनरो मद्रास में जब शिक्षा पद्धति के सर्वेक्षण का आदेश दे रहे थे, लगभग उसी समय बॉम्बे प्रेसीडेंसी के गवर्नर, माउंटस्टुअर्ट एलफिंस्टन (1819 से 1827 के बीच बॉम्बे के गवर्नर रहे) ने भी इसी प्रकार के आदेश कमिशनर ऑफ डेक्कन को तथा गुजरात और कोंकण के कलेक्टर्स को दिये। 10 मार्च 1824 का, Government of Bombay का, गांवों की संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था के बारे में जानकारी देने का पत्र है। एलफिन्स्टन ने इसके लिए जो कमेटी बनाई, उसमें जी एल प्रेण्डरगास्ट का समावेश, ‘बॉम्बे गवर्नर काउंसिल’ के सदस्य के रूप में था। प्रेण्डरगास्ट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, “There is hardly a village, great or small, throughout our territories, in which there is not at least one school, and in large villages, more.”

उन्हीं दिनों बंगाल में इस सर्वेक्षण का काम किया विलियम एडम ने। 1796 में स्कॉटलैंड में जन्मे विलियम, बाप्टिस्ट मिशनरी के रूप में सन 1818 में भारत आए। तब मराठों को हराने के बाद, अंग्रेजों ने लगभग पूरे देश पर अपनी हुकूमत कायम कर ली थी। विलियम 28 वर्ष भारत में रहे। यहां वे राजा राम मोहन रॉय के संपर्क में भी रहे।

लॉर्ड विलियम बेंटिक उन दिनों भारत के गवर्नर जनरल हुआ करते थे। अंग्रेजी सत्ता की राजधानी कलकत्ता थी। बेंटिक ने, विलियम एडम्स को शिक्षा विभाग में अधिकारी पद पर नियुक्त किया तथा उन्हें बंगाल और बिहार की पाठशालाओं के बारे में रिपोर्ट देने को कहा।

विलियम एडम्स ने सन 1835 से 1838 तक, तीन रिपोर्ट प्रस्तुत कीं, जो ‘एडम्स रिपोर्ट्स’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। अपनी पहली रिपोर्ट में एडम लिखते हैं, ‘बंगाल (उस समय का पूरा बंगाल, अर्थात आज का बंगला देश मिलाकर) और बिहार में एक लाख के लगभग स्कूल्स हैं। इन दोनों प्रान्तों की जनसंख्या चार करोड़ के बराबर है। अर्थात प्रति 400 व्यक्तियों पर एक शाला है’।

विलियम एडम ने जिन्हें शालाएँ कहा है, वे सारी बड़ी–बड़ी शालाएँ नहीं हैं। उन में से अधिकतर शालाएँ, मंदिरों में, खुले आहाते में, बरगद के पेड़ के नीचे या पढ़ने वाले मास्टर जी के घर पर लगती हैं। सभी प्रकार की मूलभूत प्राथमिक शिक्षा यहां दी जाती है।

उन दिनों पूरा पंजाब अंग्रेजों के कब्जे में नहीं था। महाराजा रंजीत सिंह ने लाहौर को राजधानी बनाकर पेशावर तक अपना शासन बना कर रखा था। इस में जितना भी पंजाब अंग्रेजों के पास था, उसका गवर्नर जनरल था, चार्ल्स स्टुअर्ट हार्डिंग (Charles Stewart Hardinge)। इन्होंने भी मद्रास और बॉम्बे के जैसा सर्वेक्षण पंजाब में करवाने का प्रयास किया। किन्तु उत्तर – पश्चिम सीमा पर युद्ध – परिस्थिति रहने के कारण यह संभव न हो सका।

पंजाब में यह सर्वेक्षण हुआ लगभग 50 वर्षों के बाद, जब अंग्रेजों का पूरे पंजाब पर स्वामित्व हो गया। जी. डब्लू. लेटनर नाम के ब्रिटिश आई सी एस अधिकारी ने इस सर्वेक्षण का काम किया था। उनमे से कुछ सर्वेक्षणों के रिपोर्ट के आधार पर उन्होंने पुस्तक भी लिखी – History of Indigenous Education in Punjab : Since Annexation and in 1882, इसमें लेटनर बड़ी जबरदस्त बातें लिखते हैं। वो कहते हैं, ‘भारत में बड़ी अच्छी विकेंद्रित शिक्षा व्यवस्था है। लगभग प्रत्येक गांव की अपनी पाठशाला हैं, जो गांव वाले चलाते हैं। इन पाठशालाओं को जमीनें आवंटित हैं, जिनकी आमदनी से पाठशाला का खर्चा निकलता है।’

लेटनर आगे लिखते हैं, ‘इन में से अनेक स्कूलों का स्तर तो हमारे ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज विश्वविद्यालय के बराबर का है। शिक्षकों को अच्छा वेतन दिया जाता हैं।’

यह जी डब्लू लेटनर (G. W. Leitner) बड़े जबरदस्त व्यक्तित्व के धनी थे। Dr. Gottlieb Wilhelm Leitner का जन्म 15 अक्तूबर 1840 में हंगेरी की राजधानी बुडापेस्ट में हुआ था। लेटनर का परिवार यहूदी (ज्यू) था। उन्हें भाषाओं पर विलक्षण प्रभुत्व हासिल था। जब वे आठ वर्ष के थे, तब कोन्स्टेंटिनोपोल (आज का ‘इस्तांबुल’) गये और वहां से अरबी तथा तुर्की भाषा सीख कर आए। दस वर्ष की आयु में वह इन दो भाषाओं के साथ, अधिकतर यूरोपियन भाषाएं सहजता से बोल लेते थे। पंद्रह वर्ष की आयु में वह क्रिमिया में ब्रिटिश कमिशनरेट में अनुवादक की नौकरी करने लगे।

इस यहूदी नौजवान ने बाद में मुस्लिम धर्म अपना लिया, और वह अरेबिक का व्याख्याता बन कर विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगा। लंदन के किंग्स कॉलेज में पढ़ाते समय, उन्हें ब्रिटिश सरकार ने भारत में पढ़ाने के लिए आमंत्रित किया। 1864 में लेटनर, लाहौर की Government University के प्रमुख बनकर, आई सी एस अधिकारी के रूप में, भारत आये। 1882 में उन्हीं ने पंजाब यूनिवर्सिटी की स्थापना की। भारत में इस मुकाम में, उन्होंने भारतीय प्रणालियों का गहन अध्ययन किया। लेटनर ने 1870 – 1875 के बीच मे, उत्तर पंजाब के होशियारपुर जिले का बृहद आर्वेक्षण किया, जो पुस्तक के रूप में उपलब्ध हैं। लेटनर ने लिखा है, ‘इस होशियारपुर जिले में साक्षरता की दर 84% है।’(अंग्रेजों के, भारत से जाते समय, सन 1948 में किए गए सर्वेक्षण में यह दर मात्र 9% बची थी। इस कालखंड में अंग्रेजों ने, गांव की पाठशालाओं को आवंटित जमीन हड़प ली। विकेंद्रित शिक्षा व्यवस्था बंद की। उसे केंद्रीकृत किया, और अंग्रेजों के अनुसार पाठ्यक्रम निर्धारित होने लगा।)

ईस्ट इंडिया कंपनी के एक और अधिकारी, अलेक्जेंडर वॉकर (1764 – 1831) ने दस वर्ष से ज्यादा समय भारत में गुजारा। वे अमेरिका भी गये और वहां से वापस भारत आये। उन्होंने केरल के मालाबार में शिक्षा और साक्षरता का जो वातावरण देखा, उस के बारे लिख के रखा है। उन्होंने लिखा है कि अत्यंत सीधे और प्राकृतिक संसाधनों से इन भारतीयों ने अपनी शिक्षा प्रणाली की रचना की है।

वॉकर लिखते हैं, “The literature of Malabar has the same foundation, and consists of the same materials, as that of all Hindoo nations. Education with them is an early and important business in every family. Many of their women are taught to read and write. The children are instructed without violence and by a process, peculiarly simple. The system was borrowed from the Bramans and brought from India to Europe. It has been made the foundation of National Schools in every enlightened country. The pupils were the monitors of each other and the characters (अक्षर / आंकड़े) are traced with finger on the sand.’ (page no 263 of his book)

वॉकर ने आगे लिखा है, “The Missionaries have now honestly owned that the system upon which these (British) schools are now taught, was borrowed from India.

ऑस्ट्रिया के एक मिशनरी, जॉन फिलिप वेस्डिन, अट्ठारवीं शताब्दी के अंत में केरल के मालाबार में काम कर रहे थे। वर्ष 1776 से 1789 तक वह केरल में थे। उन्होंने यूरोप वापस जा कर, वर्ष 1796 में, रोम में अपना लेख (जिसे उन्होंने account कहा है) प्रकाशित किया। इस में वो लिखते हैं, “The education of youth in India is much simpler, and not near so expensive as in Europe. The method of teaching writing was introduced into India, two hundred years before the birth of Christ, according to the testimony of Megasthenes, and still continued to be practiced.”

मिशनरी बनने के बाद Fra Paolino Da Bartolomeo नाम से लिखे आलेख में वो आगे कहते हैं कि ‘इन कक्षाओं के शिक्षक, छोटी कहानियों और श्लोकों के माध्यम से नैतिक और सदाचार पूर्ण शिक्षा देते हैं। इन्हों ने उन सभी विषयों की सूची दी है, जो पाठशालाओं में पढ़ाये जाते हैं। ये विषय हैं – कविता, वनस्पति शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, नौकानयन शास्त्र, तर्कशास्त्र, न्याय शास्त्र, खगोलशास्त्र, निःयुद्ध (मार्शल आर्ट), मौन, स्वाध्याय आदि’… वे कहते हैं, “भारतीयों की इस शिक्षा पद्धति से विद्यार्थियों का व्यावसायिक ज्ञान मजबूत और उन्नत होता है।” यह सब लिखते हुए वह डिडोरस सिकुलस, स्ट्राबो, आरियन आदि ग्रीक (यूनानी) विद्वानों के संदर्भ देते हैं।

यह सब लिखने के बाद, फ्रा पाओलिनो दा बार्टोलोमीओ (पहले का नाम – जॉन फिलिप वेस्डिन) लिखते हैं, “Indian do not follow that general and superficial method of education, by which children are treated as if they were all intended for the same condition and for discharging the same duties.”

इन्हों ने आगे लिखा है, “By the time of Alexander the Great, the Indian had acquired such skill in the mechanical arts, that Nearchus, the commander of Alexander’s fleet, was much amazed at the dexterity (निपुणता / कौशल) with which they (Indians) imitated the accoutrements of the Grecian soldiers.” आगे लिखा है, “It however can not be denied that the arts and sciences in India have greatly declined since the foreign conquerors expelled the native kings, by which several have been laid extremely waste and the cast confounded with each other.”

यह भी माना जाता है कि अंग्रेज़ों के आने से पहले, शिक्षा पर ब्राह्मणों का ही एकाधिकार था। किंतु अंग्रेजों ने, उन्होंने प्रारंभिक काल में, देश के विभिन्न हिस्सों में जो सर्वेक्षण किए, उन में मिला डेटा इस मिथक को पूरी तरह ध्वस्त करता है। यह झूठ, अंग्रेजी शासन के प्रारंभिक दिनों में ईसाई मिशनरी और शिक्षा विभाग में काम कर रहे अंग्रेज़ अफसरों ने फैलाया है।

सर्वेक्षणों से प्राप्त डेटा के अनुसार वर्ष 1825 के आस पास, शाला में जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या थी 1,75,089, इनमें मात्र 42,502 ब्राह्मण विद्यार्थी थे (अर्थात 24.25%)। ब्राह्मणों के अलावा अन्य सवर्ण जातियों के विद्यार्थियों की संख्या थी 19,669 (11%)। बचे हुए लोगों में 85,400 यह शूद्र तथा अन्य पिछड़ी जाति के थे। (अंग्रेजी आंकड़ों और नामों के अनुसार) मुस्लिम विद्यार्थियों की संख्या 7% थी। मद्रास प्रेसीडेंसी के अंतर्गत मालाबार के जो आंकड़े दिये गए हैं, उनके अनुसार, धर्मशास्त्र, खगोलशास्त्र, तर्कशास्त्र, चिकित्सा शास्त्र आदि विषयों में कुल 1,588 विद्यार्थी थे, उनमें ब्राह्मणों की संख्या थी 639। अंग्रेजों के अनुसार ‘शूद्र’ इस संज्ञा के अंतर्गत 254 विद्यार्थी थे। अन्य पिछड़ी जाति के विद्यार्थी 672 थे। चिकित्सा शास्त्र के 190 विद्यार्थियों में ब्राह्मण विद्यार्थियों की संख्या मात्र 31 हैं।

अंग्रेजों ने किए हुए सर्वेक्षणों में, पूरे देश के किसी भी हिस्से का डेटा लिया जाए, तो भी यही निष्कर्ष निकलते हैं, अर्थात, अंग्रेज़ों के आने से पहले हमारी शिक्षा व्यवस्था सब के लिए खुली थी, मुक्त थी।

John Malcolm Ludlow एक एंग्लो – ब्रिटिश बैरिस्टर थे, जिनका जन्म 1821 में मध्य प्रदेश के नीमच में हुआ था। इनके पिताजी ईस्ट इंडिया कंपनी में अधिकारी थे। बाद में John Malcolm इंग्लैंड गए और वहां ‘वर्किंग मेंस कॉलेज’ की स्थापना की। इस कॉलेज के विद्यार्थियों को समय – समय पर भारत के बारे में जो व्याख्यान (लैक्चर) उन्होंने दिये, उनका संकलन ‘ब्रिटिश इंडिया’ शीर्षक से हुआ। यह संकलन 3 भागों (volumes) में उपलब्ध है। इस ‘ब्रिटिश इंडिया’ में जॉन माल्कम लुड़लो कहते हैं, “In every Hindu village, which has retained anything of its form, the rudiments of knowledge are sought to be imparted, there is not a child, who is not able to read, to write, to cipher in the last branch of learning they are confessedly most proficient.”

इसी ‘ब्रिटिश इंडिया’ में आगे लिखा है, “Where the village system has been swept away by us (Britishers), as in Bengal, here the school system has equally disappeared !

संक्षेप में, अंग्रेज़ जब भारत में सत्ता के आसपास पहुंच रहे थे, तब भारत की शिक्षा व्यवस्था विकेंद्रित थी। लगभग सभी गावों में पाठशालाएं थीं। गावों के द्वारा इन पाठशालाओं की आर्थिक व्यवस्था देखी जाती थी। शिक्षकों को अच्छा वेतन मिलता था। इन पाठशालाओं का स्तर अच्छा था (लेटनर तो कहता है, इनका स्तर, केंब्रिज और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों के बराबर था)। एक सुव्यवस्थित शिक्षा पद्धति भारत में कार्यरत थी।

इसी समय इंग्लैंड में शिक्षा व्यवस्था की क्या स्थिति थी ?

एलेक्झेंडर वॉकर ने ‘भारतीय शिक्षा’ पर पर जो पुस्तक लिखी है, उसमें इसका वर्णन है। वॉकर लिखता है, ‘इंग्लैंड में सत्रहवीं – अठारवीं शताब्दी में औद्योगीकरण का उछाल (boom) आया था। यह औद्योगीकरण, विद्यार्थियों की तरुणाई को खाये जा रहा था। बच्चों को इन उद्योगों में, कठिन परिस्थिति में, काम में झोंक दिया जाता था। बाल श्रमिकों के विरोध में कोई कानून नहीं था।

इंग्लैंड में ऑक्सफोर्ड, केंब्रिज, एडिनबर्ग आदि विश्वविद्यालय तेरहवीं – चौदहवीं शताब्दी से थे। अठारवीं शताब्दी तक इंग्लैंड में 500 ‘ग्रामर स्कूल्स’ थे। किन्तु इनकी पहुंच जनसामान्य तक नहीं थी। शिक्षा महंगी थी और समाज का आभिजात्य वर्ग ही उसे ग्रहण कर सकता था। वर्ष 1792 में, पूरे इंग्लैंड के शालाओं में विद्यार्थियों की संख्या मात्र 40,000 थी ! सामान्य वर्ग के लिए, ‘बच्चे को बाइबल पढ़ना आ गया, अर्थात अच्छी शिक्षा मिल गई’, ऐसा माना जाता था।

ऐसी पृष्ठभूमि में, एंड्रयू बेल नामक शिक्षाविद ने सन 1802 के आसपास, भारतीय शिक्षा व्यवस्था का अध्ययन कर के इंग्लैंड की शालाओं के लिए एक प्रणाली विकसित की, जो आज भी ‘मोनिटोरियल सिस्टम’ या ‘मद्रास सिस्टम’ के नाम से जानी जाती हैं। ‘मद्रास सिस्टम’ इसलिए, क्यूँ कि एंड्रयू बेल और जोसफ लंकास्टर ने मद्रास इलाके के एगमोर में शालाओं का अध्ययन कर के, यह प्रणाली विकसित की।

इस पद्धति में शिक्षा सस्ती थी। एक ही शिक्षक, विद्यार्थियों के बड़े समूह को सिखाता था। वह कक्षा के ‘कक्षा नायकों’ (मोनिटर्स – monitors) की सहायता लेता था। यह ‘कक्षा नायक’, उन विद्यार्थियों में से ही होते थे, जो थोड़े तेज रहते थे। यह बच्चे (मोनिटर्स), अपने समूह के बच्चों को नियंत्रित करते थे। इसे ही ‘मोनिटोरियल सिस्टम’ या ‘मद्रास सिस्टम’ कहा गया।

एंड्रयू बेल, एक निजी शिक्षक (प्राइवेट ट्यूटर) के रूप में अपना करियर बनाना चाह रहे थे। फरवरी 1787 में वे भारत के दक्षिण – पूर्वी किनारे, मद्रास में पहुंचे। मद्रास प्रेसीडेंसी में वे दस वर्ष रहे। इन्होंने केरल में देखा कि कुछ विद्यार्थी, अपने ही साथ के विद्यार्थियों को पढ़ा रहे हैं। बाद में, इस व्यवस्था की और अधिक जानकारी लेने के बाद, एंड्रयू बेल के दिमाग में ‘मोनिटोरियल शिक्षा पद्धति’ की कल्पना साकार हुई। उन्होंने इंग्लैंड जाकर, जोसेफ लंकेस्टर के साथ मिल कर इस प्रणाली की पाठशालाएं प्रारंभ कीं, जिन्हें जबरदस्त समर्थन मिला और इस प्रकार भारतीय शिक्षा पद्धति पर आधारित शालाएं इंग्लैंड में चलने लगीं।

Gurukul

और हमें पढ़ाया जाता रहा कि भारत की शिक्षा पद्धति, अंग्रेजों ने खड़ी की..!

भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापार को ज्यादा मजबूत बनाने के लिए, ब्रिटेन की संसद ने एक ‘चार्टर अधिनियम’ पारित किया। ‘1813 का चार्टर अधिनियम’ इस नाम से यह प्रसिद्ध है। इस अधिनियम के अनुसार, भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन को जारी रखा गया अर्थात इसके अंतर्गत, भारत पर ब्रिटेन के राजा की संप्रभुता साबित की गई। चार्टर अधिनियम में, मिशनरियों को भारत में जाकर ईसाई धर्म का प्रचार – प्रसार करने की अनुमति दी गई थी।

लोकतंत्र के प्रति अपना प्रेम दिखाने के लिये, ब्रिटेन की संसद ने, इस अधिनियम के अंतर्गत यह कहा कि ‘भारत को शिक्षित करना ब्रिटेन का दायित्व है’ _(अधिनियम के इस एक वाक्य से अंग्रेजों ने यह साबित करने का पूरा प्रयास किया, की अंग्रेजों के आने से पहले का भारत गंवार और अनपढ़ था) अर्थात ईस्ट इंडिया कंपनी को कहा गया कि वह शिक्षा पर ज्यादा पैसा खर्च करे तथा इन नेटिवों को (भारतियों को) ‘ठीक से’ शिक्षित करे। अब मुद्दा उठा कि शिक्षा किसे देनी है? कौन सी भाषा में देनी है? और कौन सी रचना से (कौन से सिस्टम से, कौन से विभाग से) देनी है?

भाषा के मामले में अंग्रेजों में ही दो मत थे। एक मत के समर्थक कह रहे थे कि भारतीय भाषाओं में, विशेषकर संस्कृत में, भारतीयों को शिक्षा देना चाहिए। इस मत के लोगों ने भारतीय ज्ञान का वैभव देखा था। उन्हें यह मालूम था, कि भारतीय ज्ञान परंपरा इंग्लैंड की ज्ञान परंपरा से कहीं अधिक प्राचीन और समृद्ध है।

किंतु इस ‘ओरिएंटलिस्ट विचारधारा’ के समर्थक अत्यंत अल्पमत में थे। अधिकतर अंग्रेजों को लगता था कि भारतीय लोगों की स्वतः की कोई शिक्षा पद्धति नहीं है। ये तो दक़ियानूसी और पिछड़े लोग हैं। इन्हें अंग्रेजी में ही शिक्षित करना चाहिए।

वर्ष 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने मराठों को हराकर, लगभग पूरे देश पर अपना अधिकार जमा लिया था। अब तो इस शिक्षा व्यवस्था को, रियासतों को छोड़कर, बचे हुए ‘ब्रिटिश इंडिया’ में लागू करना सरल था। युद्ध का वातावरण भी नहीं के बराबर था। इसलिए ईस्ट इंडिया कंपनी, इस व्यवस्था के कार्यान्वयन पर जुट गई।

Lord Thomas Babington Macauly
Lord Thomas Babington Macauly

इसके अंतर्गत, लॉर्ड थॉमस बाबिंग्टन मेकाले (Lord Thomas Babington Macauly) ने 2 फरवरी, 1935 को अपनी रिपोर्ट कंपनी के सुपुर्द की। यह मेकाले के ‘मिनट ऑफ इंडियन एजुकेशन’ नाम से प्रसिद्ध है। इसके अनुसार, भारतीयों को दी जाने वाली शिक्षा ‘कंपनी के व्यापारिक हितों’ को देखते हुए ही दी जानी चाहिए। मेकाले के अनुसार, अंग्रेजी उपनिवेश (colony) अगर मजबूत करना है, तो भारतीयों की जड़ों को हिलाना पड़ेगा। उन्हें ब्रिटिश उपनिवेश के रंग में रंगना होगा। मेकाले का यह रिपोर्ट मूलतः पढ़ना चाहिए। इसमें कुल 36 मुद्दों के आधार पर मेकाले अपनी बात रखते हैं। पूरी रिपोर्ट में भारतीयों के और भारतीय भाषाओं के बारे में मेकाले अत्यंत तुच्छतापूर्वक और घटिया भाषा में उल्लेख करते हैं। भारतीयों के लिये उन्होने ‘नेटिव’ शब्द का प्रयोग किया है। अंग्रेजी जानने वाला नेटिव, उनकी भाषा में ‘लर्नेड नेटिव’ है। उन्हीं के शब्दों में कुछ बिन्दु –
• All parties seem to be agreed on one point, that the dialects commonly spoken among the natives of this part of India contain neither literary nor scientific information, and are moreover so poor and rude that, until they are enriched from some other quarter, it will not be easy to translate any valuable work into them. It seems to be admitted on all sides, that the intellectual improvement of those classes of the people who have the means of pursuing higher studies can at present be affected only by means of some language not vernacular amongst them.
• I have no knowledge of either Sanscrit or Arabic. But I have done what I could to form a correct estimate of their value. I have read translations of the most celebrated Arabic and Sanscrit works. I have conversed, both here and at home, with men distinguished by their proficiency in the Eastern tongues. I am quite ready to take the oriental learning at the valuation of the orientalists themselves. I have never found one among them who could deny that a single shelf of a good European library was worth the whole native literature of India and Arabia. The intrinsic superiority of the Western literature is indeed fully admitted by those members of the committee who support the oriental plan of education.
• When we pass from works of imagination to works in which facts are recorded and general principles investigated, the superiority of the Europeans becomes absolutely immeasurable. It is, I believe, no exaggeration to say that all the historical information which has been collected from all the books written in the Sanscrit language is less valuable than what may be found in the most paltry abridgments used at preparatory schools in England.* In every branch of physical or moral philosophy, the relative position of the two nations is nearly the same.

इसी रिपोर्ट के अंतिम भाग में, 34 वें बिन्दु में, मेकाले ने जो लिखा है, वह भयंकर है। 1947 तक अंग्रेजी शासन इसी विचार के आधार पर चला और दुर्भाग्य से, स्वतंत्रता के पश्चात भी हमारे तत्कालीन राजकर्ताओं ने इसी विचार प्रवाह को आगे बढ़ाया। क्या हैं ये बिन्दु..?

इस 34 वें बिन्दु में मेकाले लिखते हैं, “हमारे सीमित संसाधनों के साथ पूरे भारत को शिक्षित करना संभव नहीं है। इसलिए हमें एक ऐसा वर्ग तैयार करना चाहिए, जो हमारे और सामान्य नेटिवों के बीच दुभाषिए के रूप में काम करे और जो हमारी बाते उनसे करवा ले। यह वर्ग ऐसा होना चाहिए, जिनका खून और रंग भारतीय हो, किंतु मन और मस्तिष्क से वे अंग्रेज़ हों…”
• In one point I fully agree with the gentlemen to whose general views I am opposed. I feel with them that it is impossible for us, with our limited means, to attempt to educate the body of the people. We must at present do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern, –a class of persons Indian in blood and colour, but English in tastes, in opinions, in morals and in intellect. To that class we may leave it to refine the vernacular dialects of the country, to enrich those dialects with terms of science borrowed from the Western nomenclature, and to render them by degrees fit vehicles for conveying knowledge to the great mass of the population.

उन दिनों लॉर्ड विलियम बेंटिक भारत के गवर्नर जनरल थे। 4 जुलाई 1828 से 20 मार्च 1835 तक उनका कार्यकाल रहा। अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में उन्होंने लॉर्ड मेकाले के ‘मिनट’ को स्वीकृति दी। ब्रिटिश पार्लियामेंट से English Education Act 1835 पारित कराया। उन दिनों न्यायालयों में चलने वाली फारसी भाषा के स्थान पर अंग्रेजी की प्रतिस्थापना की।

और उसके बाद, भारत की शिक्षा पद्धति का एकमात्र उद्देश्य, भारतीयों को अंग्रेजी मानस में ढालना, इतना ही रह गया..!

वर्ष 1844 में हेनरी हार्डिंग्स भारत के गवर्नर जनरल बने। ये सेनानी थे। फील्ड मार्शल रह चुके थे। फर्स्ट वायकाउंट हार्डिंग यह उनकी उपाधि थी। यह जब भारत के गवर्नर जनरल बनाए गए, तब ब्रिटिश सेना, उत्तर – पश्चिमी भाग में सिखों से लड़ रही थी।

हेनरी हार्डिंग्स ने गवर्नर जनरल का पदभार सम्हालने के तुरंत बाद घोषणा की, कि ‘जिन लोगों ने अंग्रेजी शालाओं से अपना पाठ्यक्रम पूरा किया हैं, उन सभी को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता दी जाएगी।’

इसके दस वर्ष के अंदर ही, अर्थात वर्ष 1854 में, सर चार्ल्स वुड ने भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी को एक पत्र लिखा, जिसे ‘वुड्स डिस्पेच’ या ‘वुड का घोषणापत्र’ कहा जाता है। इसे ‘भारत में अंग्रेजी शिक्षा का मैंग्ना कार्टा’ भी कहा जाता है _(‘मैग्ना कार्टा’ या ‘ग्रेट चार्टर’, यह एक दस्तावेज़ है जो 15 जून 1215 को थेम्स नदी के किनारे किंग जॉन, इंग्लैंड में राजनैतिक स्वतंत्रता के संदर्भ में हस्ताक्षर कर जारी किया था)।

सर चार्ल्स वुड (1800 – 1885), ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्य थे। वे 1852 से 1855 तक, ‘बोर्ड ऑफ कंट्रोल’ के अध्यक्ष भी थे। अपने घोषणापत्र में उन्होंने भारत में अंग्रेजी शिक्षा के महत्व पर ज़ोर दिया। भारत में अंग्रेजी सत्ता ठीक से स्थापित होने में उनका सबसे बड़ा योगदान यह था, कि उन्होंने भारतीयों के बीच एक ‘अंग्रेजी वर्ग’ (इंग्लिश क्लास – पूर्णतः अंग्रेजी मानसिकता का भारतीय वर्ग) का निर्माण किया, जो अंग्रेज़ोॉ और अंग्रेजी शासन के प्रति अत्यधिक वफादार था

इन सब के चलते अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी साहित्य का प्राबल्य हुआ। पुरानी चलती आ रही भारतीय शिक्षा पद्धति को दकियानूसी माना जाने लगा। धीरे – धीरे थोड़ी बहुत बची हुई गुरुकुल परंपरा भी समाप्त होती गईअत्यंत सुंदर विकेंद्रित व्यवस्था के अंतर्गत, गांवों में चलाई हुई पाठशालाएं बंद होती गईं और उनके स्थान पर अंग्रेजी शालाएं खुलती गईं!

अर्थात भारत में स्वतंत्र विकसित, प्राथमिक शिक्षा की प्रणाली इंग्लैंड ने अपनाई, और हमारी विकेंद्रित शिक्षा पद्धति को नष्ट कर के हम पर अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली थोप दी।

References

The British System of Education – Joseph Lancaster (1778 – 1838)
The Practical Parts of Lancaster’s improvements and Bell’s experiments – Joseph Lancaster and Andrew Bell. Edited by David Salmon (1932)
Improvement in Education, as it respects the Industrious Classes of the Community – Joseph Lancaster
Cambridge Essay’s on Education – Arthur Christopher Benson (1919)
The Beautiful Tree : Indigenous Indian Education in the Eighteenth Century – Dharmpal
Education System in Pre-British India – Ram Swarup
A Report on the State of Education in Bengal – William Adam
Alternate Perceptions of India : Arguing for a Counter Narrative – Dr. Anirban Ganguly (VIF)
British India, its races and its history, considered with reference to mutinies of 1857 – John Malcom Ludlow
Background of Macaulay’s Minute – Elmer H. Cutts (Published in American Historical Review – Vol 58, No 4, July 1953)
Missionaries in India – Arun Shourie
Impact of British Raj on the Education System in India: The Process of Modernization in the Princely States of India – The case of Mohindra College, Patiala – Kanika Bansal (2017)
The Tormented Indian Spirit : Redemption or Regression – Bhagini Nivedita
The History of British India – James Mill (1848)
Sir John Malcolm and the Creation of British India – Jack Harrington (2011)

 

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